निम्नांकित में कौन फराइजी आंदोलन का नेता था who among the following was the leader of Faraizi movement?

The BPSC 68th CCE Schedule has been released. The exam calendar for the 68th CCE has been released recently. The prelims will be on 8th January 2023. Earlier, the BPSC 67th CCE Answer Key (Provisional) was released for the prelims. Candidates can submit objections against the same through speed post by 12th October 2022. The final answer key will be released after considering objections received against the provisional answer key.  The exam was held on  30th September 2022. The candidates will be selected on the basis of their performance in prelims, mains, and personality tests. A total of 802 candidates will be recruited through the BPSC Exam 67th schedule.

indian इतिहास September 14, 2021

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faraizi movement in hindi was started by फराजी आंदोलन के संस्थापक कौन थे ? फराजी आंदोलन का क्या प्रभाव पड़ा ?

भारत में मुस्लिम सामाजिक-धार्मिक सुधार मुस्लिम सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों का उद्देश्य वास्तविक अर्थों में मुसलमानों को मुस्लिम आदर्शों का पालन करने की तरफ प्रेरित करना था। इनमें से कुछ मुख्य आंदोलन हैं वहाबी आंदोलन, फराजयी आंदोलन, अहमदिया आंदोलन, तारीखे-ए-मुहम्मदिया आंदोलन एवं अलीगढ़ आंदोलन।

अहमदिया आंदोलन :  19वीं शताब्दी में मुस्लिम समाज और धर्म सुधार के लिये एक और आंदोलन चला, जिसे अहमदिया आंदोलन कहते हैं। सन् 1889 में मिर्जा गुलाम अहमद ने इस आंदोलन की शुरुआत की। यह आंदोलन उदार सिद्धांतों पर आधारित था। इसके नेता अपने को हज़रत मुहम्मद की तरह का अवतार मानते थे। आंदोलन, मुस्लिम समाज में सुधार लाने एवं उसमें व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के कार्य को अपना सर्वप्रमुख उद्देश्य मानता था। इसने गैर-मुसलामनों के प्रति युद्ध ‘जेहाद’ को बंद किये जागे की मांग की। आंदोलन ने भारतीय मुसलमानों के मध्य पाश्चात्य उदारवादी शिक्षा के प्रसार को बढ़ावा दिया। यह आंदोलन पंजाब के गुरुदासपुर जिले के ‘कादिया नगर’ से प्रारंभ हुआ था। मिर्जा गुलाम अहमद ने अपने सिद्धांतों की व्याख्या अपनी पुस्तक बराहीन-ए-अहमदिया में की है।


फराजी आंदोलन :  इस आंदोलन की शुरुआत हाजी शरियत-अल्लाह ने की थी। इस आंदोलन को ‘फराइदी आंदोलन’ के नाम से भी जागा जाता है क्योंकि इसका मुख्य जोर इस्लाम धर्म की सच्चाई पर था। इस आंदोलन का कार्य क्षेत्र मुख्यतयाः पूर्वी बंगाल था तथा इसका मुख्य उद्देश्य इस क्षेत्र की मुस्लिम आबादी को सामाजिक भेदभाव एवं शोषण से बचाना था। हाजी शरियत अल्लाह के पुत्र दूदू मियां के नेतृत्व में 1840 के पश्चात् आंदोलन ने क्रांतिकारी रुख अख्तियार कर लिया। दूदू मियां ने आंदोलन को एक नया स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने इसे गांव से लेकर प्रांतीय स्तर तक संगठित किया। उन्होंने संगठन के प्रत्येक स्तर पर एक प्रमुख नियुक्त किया। इस आंदोलन ने सशस्त्र कार्यकर्ताओं का एक दल तैयार किया जिसका कार्य हिन्दू जमींदारों एवं पुलिस के विरुद्ध संघर्ष करना था। दूदू मियां को अनेक बार पुलिस ने गिरफ्तार किया किंतु 1847 में दूदू मियां की लंबी गिरफ्तारी के पश्चात् आंदोलन कमजोर हो गया। 1862 में दूदू मियां की मृत्यु के बाद भी आंदोलन चलता रहा किंतु किसी बड़े राजनैतिक प्रश्रय के अभाव में इसकी पहचान एक क्षेत्रीय धार्मिक आंदोलन के रूप में सिमट कर रह गयी। तारीखे-ए-मुहम्मदिया आंदोलनः सैयद अहमद बरेलवी द्वारा संस्थापित तारीखे-ए-मुहम्मदिया आंदोलन एक संपूर्ण इस्लामिक राज्य के सृजन के लिए चलाया गया सशस्त्र आंदोलन था। इस आंदोलन का आद्वान रोमन पारसियों एवं हिंदू मूल की प्रथाओं एवं रीति-रिवाजों के उन्मूलन के लिए किया गया।

अलीगढ़ आंदोलन :  अलीगढ़-आंदाकनन शिक्षित मुसलमानांे के बीच उदार एवं आधुनिक पद्धति का विकास किया, जो कि मोहम्डन एंग्लो-ओरिएंटल कालेज अलीगढ़ पर आधारित था। इसके मुख्य उद्देश्यों में (प) इस्लाम के दायरे में रहकर भारतीय मुसलमानों के बीच आधुनिक शिक्षा का प्रसार करना तथा (पप) मुस्लिम समाज के विभिन्न क्षेत्रों जैसे-पर्दा प्रथा, बहुपत्नी प्रथा, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा, दास प्रथा, तलाक इत्यादि के क्षेत्र में सुधार लाना था।

इस आंदोलन के समर्थकों की विचारधारा कुरान की उदार व्याख्या पर आधारित थी। इन्होंने मुस्लिम समाज में आधुनिक एवं उदार संस्कृति को प्रोत्साहित करने का प्रयत्न किया। वे आधुनिक पथ पर चलकर इस्लामिक समाज का आधुनिकीकरण करना चाहते थे। इस प्रकार अलीगढ़ आंदोलन तत्कालीन समय में मुस्लिम सांस्कृतिक एवं धार्मिक गतिविधियों का केंद्र बन गया। देवबंद स्कूलः यह भी एक प्रकार का मुस्लिम धार्मिक आंदोलन था जिसे मुस्लिम धर्म के रूढ़िवादी उलेमाओं द्वारा प्रारंभ किया था। इस आंदोलन के दो मुख्य उद्देश्य थे (प) कुरान एवं हदीस की शिक्षाओं का मुसलमानों के मध्य प्रचार-प्रसार करना एवं (पप) विदेशी आक्रांताओं एवं गैर-मुसलमानों के विरुद्ध धार्मिक युद्ध ‘जेहाद’ को प्रारंभ रखना। मुहम्मद-उल-हसन ने अपने नेतृत्व में देवबंद स्कूल के धार्मिक विचारों को नया राजनीतिक एवं बौद्धिक स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने इस्लामिक सिद्धांतों एवं राष्ट्रवादी प्रेरणा के समन्वय हेतु सराहनीय प्रयास किये। बाद में ज़मात-उल-उलेमा ने हसन के विचारों को नये स्वरूप में ढाला, जिससे कि राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्रवादी उद्देश्यों को क्षति पहुंचाये बिना मुसलमानों के धार्मिक एवं राजनीतिक हितों की रक्षा हो सके। बहावी आंदोलनः मुसलमानों की पाश्चात्य प्रभावों के विरुद्ध सर्वप्रथम जो प्रतिक्रिया हुयी, उसे ही बहावी आंदोलन या वलीउल्लाह आंदोलन के नाम से जागा जाता है। वास्तव में यह एक पुगर्जागरणवादी आंदोलन था। शाह वलीउल्लाह (1702-62) अठारवीं सदी में मुसलमानों के वह प्रथम नेता थे, जिन्होंने भारतीय मुसलमानों में हुयी गिरावट में चिंता प्रकट की। उन्होंने भारतीय मुसलमानों के रीति-रिवाज तथा मान्यताओं में व्याप्त कुरीतियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया।

सूफी मत

सूफी मत इस्लाम में रहस्यवादी विचारों एवं उदार प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करता है। सूफी शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के ‘सफा’ से हुई है, जिसका अर्थ है पवित्रता अर्थात् जो लोग आध्यात्मिक रूप से और आचार-विचार में पवित्र थे, वे सूफी थे। सामान्य रूप से यह माना जाता है कि सूफी मत का मूल आधार इस्लाम में ही निहित है और कुरान के उपदेशों में देखा जा सकता है। यह कहा जा सकता है कि कुरान के उपदेशों की रूढ़िवादी व्याख्या ‘शरीयत’ है और उदार व्याख्या ‘तरीकत’ है, जो सूफी मत का आधार है। संसार से विरक्ति,एकांतमय जीवन और ईश्वर के प्रति अनुराग सूफियों के आचरण का मुख्य आधार है और यह प्रवृत्ति उमैया वंश के शासन के अंतिम दिनों में उभरी, जबकि निरंकुशता, गृहयुद्ध, अरब और गैर-अरब में भेदभाव एवं शासक वग्र की विलासिता ने लोगों के मन में एक गंभीर संकट उत्पन्न कर दिया। धीरे-धीरे सूफियों पर ईसाई, बौद्ध और हिंदू धर्म के वेदांत दर्शन का भी प्रभाव पड़ा, जिससे सूफीवाद का रूप और विकसित हुआ। प्रो. ताराचंद के शब्दों में सूफी मत एक ऐसे महासागर के समान है, जिसमें अनेक नदियां आकर विलीन हुई हैं और प्रत्येक ने अपना प्रभाव छोड़ा है। ईसाइयों से खानकाहों का संगठन, बौद्ध धर्म से एकांतमय जीवन एवं दरिद्रता तथा हिंदू धर्म से आत्मा और परमात्मा के बीच संबंधों पर व्यक्त विचार सूफी मत पर अन्य धर्मों के प्रभाव के स्पष्ट उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं। भारत में सूफियों का आगमन तुर्क आक्रमणों के काल से ही आरंभ होता है और सूफी संतों में पहला महत्वपूर्ण नाम शेख अली हुज्वीरी अथवा दाता गंज बख्श है, जो महमूद के आक्रमणकाल में लाहौर आकर बस गए। उनका प्रभाव, हांलाकि, विस्तृत क्षेत्र में नहीं पड़ा। 12वीं शताब्दी के अंत में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेर में आकर बसे। उन्होंने ही चिश्ती सम्प्रदाय की नींव रखी। इनके अनेक अनुयायी बने। इनमें दिल्ली के कुतबुद्दीन बख्तियार काकी, पंजाब के बाबा फरीद एवं दिल्ली के गिजामुद्दीन औलिया अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। चिश्ती संतों ने भारत की परिस्थितियों के अनुसार अपने सिद्धांतों एवं आचरण को निर्धारित किया। उनका दृष्टिकोण उदार था। वे ईश्वर में अटूट विश्वास, उसके प्रति असीम प्रेम और मानव समाज की सेवा जैसे सिद्धांतों को अपने दैनिक आचरण का आधार बनाने में सफल हुए। उन्होंने धर्म, जाति, सम्प्रदाय आदि के भेदभाव को छोड़कर सभी को आध्यात्मिक ज्ञान एवं सांत्वना दी। उन्होंने शासक वग्र से स्वयं को पृथक रखा। सगीत को भक्ति का माध्यम बनाया और ‘समां’ अथवा संगीत सभाओं का आयोजन किया। भारत में चिश्ती सम्प्रदाय सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ। एक दूसरा महत्वपूर्ण सम्प्रदाय या सिलसिला ‘सुहरावर्दी’ था। इसके प्रमुख संत थे बहाउद्दीन जकारिया और जलालुद्दीन तबरीजी। चिश्तियों के विपरीत इस सिलसिले के संतों ने सुख-सुविधा के साधन जुटा, और उनका उपभोग किया। उनका मानना था कि यदि आपका दिल साफ है तो सम्पत्ति अर्जित करने व उसका व्यय करने में कोई हर्ज नहीं है। इस सम्प्रदाय का प्रभाव मुख्यतः पश्चिमी भारत में सिंध, पंजाब एवं गुजरात में केंद्रित रहा। इनके कुछ अनुयायी पूर्वी भारत, बंगाल, बिहार में भी पाए जाते हैं। बिहार में सुहरावर्दी सम्प्रदाय की फिरदौसी शाखा का विकास हुआ, जिसके महान संत शरफुद्दीन मनेरी थे। दक्षिण भारत में तुर्कों की सत्ता के विस्तार के साथ सूफी मत का विस्तार हुआ और यहां भी चिश्ती सम्प्रदाय अधिक लोकप्रिय हुआ। दक्षिण में शेख बुरहानुद्दीन का नाम लिया जा सकता है; जो गिजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे। किंतु, सबसे उल्लेखनीय नाम हजरत गेसूदराज का है, जो गुलबग्र के निवासी थे। अन्य सूफी सिलसिलों में कादिरी, शुत्तारी, मदारी एवं नक्शबंदी आदि के नाम प्रमुख हैं। 17वीं शताब्दी तक भारत में 14 प्रमुख सम्प्रदायों का वर्णन मिलता है, जिनके नाम अबुल फजल ने ‘आईने अकबरी’ में दिए हैं। इनमें नक्शबंदी सम्प्रदाय उदारता से कुछ अलग था। ऐसा प्रतीत होता है कि चूंकि भारत में स्थापित सूफी सिलसिलों में सबसे अंत में स्थापित होने वाला सम्प्रदाय नक्शबंदी ही था और इस समय तक अकबर की उदार नीति के विरुद्ध मुसलमानों में उग्रवादी प्रतिक्रिया प्रारंभ हो चुकी थी, इसीलिए इसमें कट्टरपन आ गया। भारत में सूफी मत का प्रवेश 11वीं शताब्दी में हुआ, किंतु 13वीं से 17वीं सदी के बीच ही इसका व्यापक प्रभाव व प्रसार हुआ। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि शंकराचार्य का अद्वैतवाद और रामानंद की भक्तिभावना पर इस्लाम सम्पर्क का गहरा प्रभाव पड़ा है, जबकि कुछ का कहना है कि 12वीं सदी से पहले दो भिन्न संस्कृतियों का सम्पर्क इतना अधिक न था कि वे एक दूसरे को प्रभावित कर सकें। इसमें कोई संदेह नहीं कि सूफियों और संतों में काफी समानताए, हैं, जैसे गुरु का महत्व, नाम स्मरण, प्रार्थना, ईश्वर के प्रति प्रेम, व्याकुलता एवं विरह की स्थिति, संसार की क्षणभंगुरता, जीवन की सरलता, सच्ची साधना, मानवता से प्रेम इत्यादि। सूफियों और निर्गुण संतों की आस्था धर्म तथा समाज के आडम्बरयुक्त कर्मकाण्डों में न होकर भावना एवं साधनात्मक रहस्यवाद में रही है। भक्ति आंदोलन के संत नानक और कबीर सूफी विचारधारा से स्पष्टतः प्रभावित थे। ‘आदिग्रंथ’ में बाबा फरीद के शब्द आज भी सुरक्षित हैं। सिक्ख धर्म की कई परंपराएं जैसे गुरुपद का धार्मिक एवं राजनीतिक नेतृत्व से संबंध, मसनद की व्यवस्था इत्यादि इस्लाम के स्पष्ट प्रभाव हैं। कबीर की शब्दावली और उनके द्वारा निर्गुण निराकार ईश्वर की आराधना सूफीवाद की ही देन है। सूफियों ने संगीत सभाओं ‘समां’ के आयोजन पर विशेष बल दिया था। इनमें भक्ति भाव से प्रेरित काव्य वाद्ययंत्रों के साथ गाए जाते थे। चूंकि सूफी पहले से ही ईरानी संगीत जागते थे, इसलिए ‘समाओं’ में ईरानी राग-रागिनियों का विस्तार हुआ। मध्यकाल में संगीत के क्षेत्र में अमीर खुसरो का योगदान अविस्मरणीय है। इन्होंने नए राग बना,, नए वाद्ययंत्र विकसित किए। आगे चलकर मुहम्मद गौस ग्वालियरी ने भी संगीत की समृद्धि में विशेष भूमिका निभाई। कहा जाता है कि प्रसिद्ध गायक तानसेन ने ईरानी संगीत की शिक्षा इन्हीं से ली थी। भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भी सूफियों का योगदान अद्वितीय है। प्रो. गिजामी के अनुसार सूफियों के खानकाहों में ही उर्दू भाषा का जन्म हुआ। उर्दू भाषा के आरंभिक ग्रंथ सूफियों ने ही लिखे हैं।

मुस्लिम समाज के प्रति भी इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वस्तुतः भारत में इस्लाम का प्रचार इन्होंने ही किया। इन्होंने सिद्ध किया कि इस्लाम धर्म केवल हिंसा और कट्टरता पर ही आधारित नहीं है। गिजामी के अनुसार संपूर्ण सूफी आंदोलन ने बहमनी राज्य को नैतिक बल प्रदान करने का ही कार्य नहीं किया, बल्कि उसके उत्तराधिकारियों ने जनता के आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास को पुष्ट करने हेतु सामाजिक विचारों के निर्माण का नया वातावरण भी निर्मित किया। मध्यकाल में नगरीय जीवन के कारण जो बुराइयां आ गईं थीं, जैसे मुनाफाखोरी, दास प्रथा, मद्यपान, वेश्यावृत्ति इनके विरुद्ध नई चेतना जगाने में सूफियों का ही हाथ था।

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